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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४०

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बीजक मूल* १४३ ४ रहल पूरि । तहाँ पुरुष यहत्तर खेलें धरि ॥ माया ए देखि कस रह्यो है भूलि । जस वनस्पति रहि है है फूलि ।। कहहिं कवीर यह हरीके दास । फगुवाई माँगै वैकुंठ वास ॥२॥ वसंत ॥ ३ ॥ मैं आयो मेस्तर मिलन तोहि । रितु वसंत पहिरावहु मोहिं ।। लंबी पुरिया पाई छीन । सूत है । पुराना खूटा तीन । सर लागे तेहि तिनसै साठ ।। कसनि बहत्तर लागु गाँठ ।। खुरखुर खुरखुर चले है नारि । बैठि जोलाहिन पल्थी मारि ॥ ऊपर नई चनियां करत कोड़ । करिगह मा दुइ चलत गोड़॥ पांच पचीसो दशहु द्वार । सखी पाँच तहाँ रची। धमार ॥ रंग बिरंगी पहिरे चीर । हरिके चरण धै। गावें कबीर ॥३॥ ____ बुढ़िया हँसि वोलिमें नितहिं बारि । मोसे तरुनि कहो कवनि नारि ॥ दांत गये मोरे पान

वसंत ॥४॥ . .. t hakhhiAARARIArtime