सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

4.१५८ * वीजक मूल * तहां के विछुरे बहु कल्प वीते । भूमि परे भुलाय ॥ साधु संगति खोजि देखहु । बहुरि उलटि समाय ।। ये झुलवे को भय नहीं । जो होय संत सुजान । कहहिं कवीर सतसुकृत मिले तो। बहुरिन झूले पान? हिंडोला ॥२॥ बहुविधि चित्र वनायके । हरि रचिन क्रीडा रास ॥ जाहि न इच्छा भूलवेकी । ऐसी बुद्धि केहि पास ॥ झूलत झूलत बहु कल्प बीते । मन नहिं छाडैास॥ रच्यो रहस हिंडोरखा । निशि चारि युग चौमास ॥ कबहुँ ऊँचे कबहुँक नीचे । स्वर्ग भूमि ले जाय ॥ अति भरमित भरम हिंडोलवा । नेकु नहीं ठहराय ।। डरपत हों यह झूलवे को । राखु जादव राय ॥ कहै कबीर गोपाल विनती | शरण हरि तुम आया, हिंडोला ॥३॥ लोभ मोहके खंभा दोऊ । मनसे रच्यो हिंडोर ।।। भूलहिं जीव जहाँलगि । कितहुँ न देखों थितौर ।। चतुर झूलहिं चतुराइया । मूलहिं राजा शेप ॥