पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१५८

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  • वीजक मूल * १५९ ई

चांद सूर्य दोउ झूलहीं । उनहुन अाज्ञा भेष लख चौरासी जीव झूलही । रवि सुतधरिया ध्यान ॥ कोटि कल्प युग बीतिया। अजहु न माने हारि॥ धरती प्रकाश दोउ झूलही झूलही पौना नीर ॥ । देह धरे हरि झूलही (गढ़े) देखहि हंस कबीर ॥३॥ साखी। । जहिया जन्म मुक्ता हता । तहिया हता न कोय ।। छठी तुम्हारी हौं जगा । तू कहाँ चली विगोय ॥१॥ शब्द हमारा तू शब्दका । सुनि मति जाहु सरक ॥ । जो चाहो निज तत्वको तो शब्दहि लेहु परख ॥२॥ शब्द हमारा आदिका । शब्दै पैग जीव ॥ फूल रहनि की टोकरी । घोरै खाया घीव ॥ ३ ॥ शब्द विना सुरति प्रॉधरी । कहो कहाँ को जाय ॥ दार न पावै शब्द को । फिर फिर भटका खाय ॥४॥ शब्द शब्द बहु अंतरे । सार शब्द मंथि लीजै ॥ कहहिं कबीर जहांसारशब्दनहि। धृगजीवनसोजीजै५ शब्दै मारा गिर परा । शब्दै छोड़ा , राज ।