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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१६२

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वीजक मूल ये कवीर तें उतरि रह । तेरो सम्मल परोहन साथ। सम्मल घटे न पगु थके । जीव विराने हाथ ॥३२॥ कवीर का घर शिखर पर । जहाँ सिलहली गैल ॥ पाँव न टिकै पिपीलको। तहाँ खलकनलादेवैला॥३३॥ विन देखे वह देश के । वात कहे सो कूर ॥ आपुहि खारी खात है । वेंचत फिरे कपूर ।। ३४ ॥ शब्द शब्द सब कोई कह । वो तो शब्द विदेह ॥ जिभ्या परावे नहीं। निरखि परखि करि लेह ॥३५॥ पर्वत ऊपर हर वहै । घोरा चढ़ि बसे गॉव ।। विनाफूल भेवरा रस चाहे । कहु विरया को नांव॥३॥ चंदन बास निवारहू । तुझ कारण बन काटिया ॥ जियत जीव जनि मारहू । मूये सबै निपातिया॥३७॥ चंदन सर्प लपेटिया । चंदन काह कराय ।। है रोम रोम विष भीनिया | अमृत कहाँसमाय ॥३८॥ ज्यों मोदाद समसान शिल । सबै रूप समसान ।। कहहिकवीखहसावजकीगतितवकीदेखिभुकाना३६॥ गही टेक छोड़े नहीं । जीभ चोंच जरि जाय ।