पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१६४

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  • बीजक मूल १६५,

मलयागिर की वासमें । वेधा ढाँक पलास ॥ वे ना कबहूँ बेधिया । जुगजुंग रहिया पास ॥ ४६॥ 1 चलते चलते पगु थका । नन रहा नौ कोस ।' बीचहि में डेरापरा । कहहु कौनको दोस ॥ ५० ॥ झालि परे दिन प्राथये । अन्तर पर गइ सांझ ॥ बहुत रसिक के लागते । विस्वा रहिगइ वांझ ॥५१॥ मन कहै कब जाइये चित्त कहै कब जाँव ॥ छौ मास के हीडते । श्राध कोस पर गांव ॥ ५२ ॥ गृह तजिके भये उदासी । वन खंड तपको जाय ॥ चोली थाकी मारिया । बेरईचुनि चुनिखाय ॥५३॥ रामनाम जिन्ह चीन्हिया । झीना पिंजरतासु ॥ नैन न आवै नींदरी । अंग न जामै मासु ॥५४॥ जोजन भीजे रामरस । विगसित कबहुँ न रूख ।। अनुभव भाव न दरसे । ते नर सुख न दूख ॥५५॥ काटे श्राम न मौसरी । फाटे जुटें न कान ॥ गोरख पारस परसे बिना । कौनेको नुकसान ॥५६॥ पारस रूपी जीव है । लोह रूप संसार