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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१६५

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१६६ *बीजक मूल पारस ते पारस भया । परखभया टक्सार ॥ ५७॥ प्रेम पाटका चोलना' पहिर कवीरू नाच ॥ पानिप दीन्हो तासुको, तन मन बोले सांच ।।५८ दर्पण केरी गुफा में । स्वनहा पेठगे धाय ॥ २ देखि प्रतीमा श्रापनी । पूँकि मूंकि मरिजाय ॥५६ ज्यों दर्पण प्रतिबिंब देखिये । आपु दुहुँनमा सोय।। यह ततसे वह तत्तहे । याही से वह होय ॥ ६०॥ जोवन सायर मुझते । रसिया लाल कराय ।। अब कबीर पांजी परे । पंथी धावहिं जाय ।। ६ ॥ दोहरा तौ नौ तन भया । पदहि न चीन्हें कोय ॥ जिन्ह यहशब्द विवेकिया । छत्रधनी है सोय ॥२॥ कवीर जात पुकारिया । चढ़ि चंदनकी डार ॥ बाट लगाये ना लगे । पुनि का लेत हमार ॥३॥ सब ते सांचा है भला । जो सांचा दिलहोय. सांच विना सुख नाहिंना । कोटि करे जो कोय॥६॥ सांच सौदा कीजिये । अपने मनमें जान सांचे हीरा पाइये । मुठे मूलह हानि ।। ६५ ॥ + + +++ +