पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.१६८ वीजक मूल नो तू सांचा वाणिया । सांत्री हाट लगाव ॥ अंदर झारू देइके । फूरा दूरि वहाव ॥ ७५ ॥ कोठी तो है काठकी। दिगदिग दीन्ही भाग पंडित जरि झोली भये । साकट उबरे भाग ||७|| सावन केरा सेहरा । बूंद परी असमान ॥ सारी दुनियां वैष्णव भई । गुरुनहिं लागा कान||७७ ! दिग-ढा उतरा नहीं । याहि अंदेसा मोहिं ।।। सलिल मोहकी घारमें क्या नींद आई तोहि ॥७है. साखी कहे गहै नहीं । चाल चली नहिं जाय ।। है सलिल घार नदिया वहे । पांव कहां ठहराय ||७ell! कहता तो बहुते मिला | गहंता मिला न कोय !! सो कहता वहि जानदे । जो न गहंता होय ||८०| एक एक निस्वारिये । जो निस्वारी जाय ॥ दोय मुख का बोलना । धना तमाचा खाय ||१|| जिभ्याको तो बंद दे ! बहु बोलन निस्वार ! पारखी से संग करु | गुरुमुख शब्द विचार ||२|| जाके जिभ्या बंध नहीं । हृदया नाही सांच ॥ AR P