पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१६९

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.NPNPartytm १७० वीजक मूल * | भँवर जाल वकु जाल हैं । बूड़े बहुत अचेत ॥ कहहिं कवीर ते बांचि हैं। जिनके हृदय विवेकाle तीन लोक टीडी भये । उडे जो मनके साथ ॥ हरि जन हरि जाने विना । परे काल के हाथ ॥६॥ नाना रंग तरंग है । मन मकरंद असूझ ॥ कहहिं कवीर पुकारि के अकिल कलाले बूझllent वाजीगर का वांदरा । ऐसा जीव मनके साथ ॥ नाना नाच नचाय के । ले राखे अपने हाथा९५ ई मन चंचल ई मन चोर । ई मन शुद्ध ठगहार ॥ मनमन करते सुरनर मुनि। (जहँडे) मनके लक्ष दुवार॥ बिरह भुवंगम तन डसो । मंत्र न माने कोय ॥ राम वियोगी ना जिये । जिये तो बाउर होय ॥ राम वियोगी विकल तन । इन्ह दुखयो मति कोय ॥ छूवत ही मरि जायँगे । ताला वेली होय ॥ ६८ ॥ बिरह भुवंगम पेठि के । कीन्ह करेजे घाव ॥ साधू अंग न मोरि हैं । ज्यों भावे त्यों खावIEET 1 करक करेजे गड़ि रही । वचन वृक्षकी फांस ॥ from Herr r rrrrrrrrrrrrrr"