सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • बीजक मूल १७१.

निकसाये निकसे नहीं । रही सो काहूगांस ॥१०॥ काला सर्प शरीर में । खाइनि सब जग झारि ।। विरले ते जन वांचि है ! रामहिं भजे विचारि॥१०१ ई. काल खड़ा सिर ऊपरै । जागु विराने मीत ।। जाका घर है गैल में । सो कस सोवे निर्चित १०२ कल काठी कालू घुना । जतन जतन धुन खाय ।। काया मध्ये काल वसत है। मर्म न काह पाय१०३ ॥ मन माया की कोठरी । तन संसय का कोट ।। विपहर मंत्र माने नहीं । काल सर्प की चोट।।१०४॥ मन माया तो एक है । माया मनहिं समाय ॥ तीन लोक संशय परी । काहि कहौं समुझाय १०५ बहा दीन्हों खेतको । बेहा खेतहिं खाय ॥ । तीन लोक संशय परी । काहि कहौं समुझाय १०६ ॥ मन सायर मनसा लहरि । बूड़े बहुत अचेत ॥ कहहिं कबीर ते वाचि है । जिन हृदयं विवेक १०७ ॥ सायर वुद्धि बनाय के । वाँये विचक्षण चोर ॥ सारी दुनियां जहँ डिगई। कोई न लागा और १०८ Greekrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrattrakrit