पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

KALAMMARKa uruxxxmm १७८ वीजक मूल गुरु सिकली गर कीजिये । मनहि मस्कला दये ॥ शब्द बोलना छोलि । चित दर्पण करिलेय १६० मृरख के शिखलावते । ज्ञान गाँठि का जाय ॥ कोइला होय न ऊजरा । सौमन सावुन लाय १६१' मृद कमिया मानवा । नख सिख पाखर आहि ।। * वाहनहारा क्या करे । बान न लागे ताहि ॥१६२शा ! सेमर केरा सुवना । विवले बैग जाय ॥" चोंच सँवारे शिर धुने । ई उसहीको भाय ॥१६॥ 1 सेमर सुवना वेगि तजु ! घनी विगुरचनि पांख ऐसा सेमर जो सेवे । हृदया नाहीं अांख ॥१६॥ सेमर सुवना सेइया । दुइ देंटी की ग्रास । इटी फूटि चनाक दे । सुवना चले निरास १६५ ॥ लोग भरोसे कोन के । बैठ रहें अरगाय, ऐसेजियरहि यम लूटे । मटिया लूटे कसाय ॥१६॥ समुझि वृमि जडही रहे । बल तजि किवल होय । कहहि कवीरता संत का | पला न पकरे कोय १६७ ॥ हीरा सोइ सराहिये । सहे घननकी चोट