पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७८

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  • बीजक मूल * १७६

कपट कुरंगी मानवा । परखत निकरा खोट ॥१६॥ हरि हीरा जन जौहरी, संवन पसारी हाट । जब आवै जन जौहरी । तब हीरों की साट ॥१६॥ हीरा तहां न खोलिये। जहां कुंजरों की हाट। सहजै गाँठी बाँधि के । लगिये अपनीवाट॥१७॥

  • हीरा परा बजार में । रहा छार लपटाय ।।

- केतेहि मूरख पचिमुये। कोई पारिख लिया उठाय १७१ • हीरोंकी अोवरी नहीं । मलया गिर नहिं पाति ॥ सिघोंके लेहँडा नहीं । साधु न चले जमाति १७२ अपने अपने शिरोंका । सभन कीन्ह है मान । हरिकी बात दुरंतरी । परी न काहू जान ॥१७॥ हाड़ जेरे जस लाकड़ी । बार जर जस घास ॥ कविरा जरे रामरस । जस कोठी जरे कपास १७४ घाट भुलाना वाट बिनु । भेष भुलाना कान ।। जाकी माड़ी जगत् में । सो न परा पहिचान १७५ मूरख सो क्या बोलिये । शठ सो काह बसाय ॥ पाहन में क्या मारिये । चोखा तीर नसाय ॥१७६॥