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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७९

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१८० वीजक मूल ** जैसी गोली गुमजकी । नीच परी ढहराय ॥ तैसा हृदया मूर्खकां । शब्द नहीं ठहराय॥१७॥ ऊपर की दोऊ गई । हियेहुकी गई हिराय ॥ कहहिं कवीर जाकी चारिउ गई। ताको काह उपाय।। केते दिन ऐसे गया । अनरूचे का नेह ॥ ऊपर बोय न ऊपजे । जो धन बरसे मेह ॥१७॥ मै रोवों यहि जगतको । मोको रोवे न कोय ॥" मोको रोवे सो जना। जो शब्द विवेकी होय १८० साहेब साहेब सव कहें । मोहिं अंदेशा और ।।। साहब से परचै नहीं। बैठोगे केहि गैर ॥ १८१॥। जीव विनाजीव बांचे नहीं । जीवका जीव अधार।। जीव दया करि पालिये । पंडित करो विचार ॥१८॥ हम तो सवहीकी कही । मोको कोइ न जान ॥ तवमीश्रच्छा अवभी अच्छा।जुगजुग होउँग्रान१८३ ॥ प्रगट कहो तो मारियो । परदा लखे न कोय ।। सहना लिपा पयारतरको केहि बैरी होय ॥१८॥ देश विदेशे हो फिर । मनहीं भरा सुकाल ! FTTTTTTTTTTTTr