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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१८१

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मान १८२ * वीजक मूल * बोली हमारी पूर्वकी हमें लखै नहिं कोय ॥ हमको तो जोई लखे । धुर पूख का होय ॥१६॥ जाके चलते रौंदे परा । धरती होय वेहाल ! सो सावज घामें जरे । पंडित करहु विचार ॥१६॥ पायन पुहुमी नापते । दरिया करते फाल ! हाथन पर्वत तौलते । तेहि धरिखायो काल ॥१६॥ नौमन दूध बटोरिके । टिपके किया विनाश ! दूध फाटि कांजी भया, हुवा घृतका नाश ||१६७ केतनो मनाचो पांवरि । केतनो मनावी रोय ॥ हिन्दू पूजे देवता । तुरुकन काहू होय ॥१६॥ मानुप तेरा गुणवड़ा, मासु न आवे काज ॥ हाड़ न होते श्राभरन । त्वचा न वाजन वाज १६ जोमोहिंजानेताहिमैंजानौं । लोकवेदकाकहानमानौं। सवकी उत्पति धरती, सब जीवन प्रतिपाल ॥२०॥ धरती न जाने प्रापगुण । ऐसा गुरू विचार ॥ धरती जानति श्रापगुण । कधीन होती डोल ॥ई तिल तिल होती गारवी-। रहति ठिकोंशी मोल२०२ ॥