पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१९०

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  • वीजक मूल * १८६

पारखी आगे खोलिये । पूँजी बचन रसाल २५४ । स्वर्ग पताल के बीच में । दुई तुमरिया विद्ध । पटदर्शन संशय परी । लख चौरासी सिद्ध २५५ सकलो दुमति दृरकरु । अच्छा जन्म बनाव ॥ कागगौन गति छाडिक । हंस गौन चलिग्राव २५६ जैसी कहे करे जो तैसी । राग दोप निरुवारे ॥ तामें घटे बढ़े रतियो नहिं ।यहि विधि प्रापुसँवारे२५७ दारे तेरे राम जी । मिलहु कवीरा मोहिं ॥ तें तो सबमें मिलि रहा । मैं न मिलूँगा तोहि२५८ भरम बढ़ा तिहुँलोक में । भरम मंडा सब गंव ॥ कहहिं कबीर पुकारि के । तुम बसेउ भरम के गाँव ॥ रतन अडाइनि रेत में । कंकर चुनि चुनि खाय ॥ कहहिं कबीर पुकारि के । ईपिंडे होहु कि जाय २६० जेते पत्र बनस्पति । औ गंगा की रेन ॥२६०॥ पंडित विचारा क्या कहे | कवीर कही मुखवैन । हो जाना कुल हंस हौ । ताते कीन्हा संग ॥२६॥ जो जानत वगु बावरा । छुवे न देतेउँ अंग ॥२६२।।