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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१९१

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१६२ वीजक मूल साधू होना चाहिये । पक्का है के खेल ॥ . कचा सरसों पेरिके । खरी भया नहिं तेल २८० ॥ सिंघों केरी खोलरी | मेढा ' पेग घाय॥ वानी ते पहिचानिये ।'शब्दहिं देत लखाय २८१ नेहि खोजत कल्पो गये । घटहिं माहिं सो मूर ॥ वाढी गर्भ गुमान ते । ताते परि गइ दूर।।२८२ । दश द्वारे का पीजरा । तामें पंची पौन ।' रहिवे को प्राचरज है । जात अचंभौ कौन २८३ . रामहिं सुमिरे रन भिरे | फिरे और की गैल ॥ मानुष केरी खोलरी । श्रोटे फिरत हैं बैल २८४ ॥ खेत भला बीज भला । बोय मुठीका फेर । काहे विरवा रूखरां । ये गुण खेतहि केर ८५ गुरु सीदी ते ऊतरे । शब्द विमूखा होय ॥ ताको काल घसीटि हैं । राखि सकै नहिं कोय२८६ भुभुरिघाम बसे.घट माहीं । सबकोइबसेसोग कीचाहीं।। जो मिला सो गुरुमिला । शिष्य न मिलिया कोय । बौलाखछयानवेसहस्ररमैनी। एक जीव पर होय ।