पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

KHATARNAAMKARTIME

    • --karne ke tarike
  • वीजक मूल* १९३...

जहँ गाहक तहँ हौनहीं । हौ तहँ गाहक नाहि ॥ विन विवेक भटकत फिरे । पकरिशब्द की छाहिं ॥ नग पपाण जग संकल है। पारख विरला कोय ॥ नगते उत्तम पारखी । जगमें विरला होय ॥२६॥ सपने सोया मानवा । खोलि जो देखे नैन ॥ जीव परा बहु लूट में । ना कुछ लेन न दैन २६१ निष्टै का यह राज है। नफर का वरते तेज ॥ सार सब्द ठकसार है (कोई) हृदया माहिं विवेक ॥ ॥

  • जवलग बोला तबलग ढोला । तौलों धन बेवहार ॥

ढोला फूटा बोला गया । कोइ न झांके द्वार ॥१६॥ कर बन्दगी विवेक की । भेष धरे सब कोय ॥ सो वंदगी बहिजान दे (जहां) शब्द विवेक न होय ॥ सुर नर मुनि औ देवता । सात दीप नौखंड ॥ कहहिं कबीर सब भोगिया । देह धरेको दंड ॥२६॥ जवलग दिलपर दिलनहीं । तबलग सवसुख नाहि ॥ चारिउ युगन पुकारिया । सो संशय दिलमाहि.२६६ जब बजावत हौं सुना । टूटि गया सब तार ॥