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वीजक मूल * १६ + युक्तिहुते फंदा नहिं परई ॥ युक्तिहि युक्त चला।
- संसारा । निश्चय कहा न मानु हमारा ॥ कनक !
कामिनी घोर पटोरा । संपति बहुत रहे दिन थोरा॥ थोरी संपति गौ वौराई। धर्मरायकी खबरिन पाईदेखि त्रास मुख गौ कुम्हिलाई।अमृत धोखे गौ विप खाई॥ साखी में सिरजो में मारो, में जारो मै खां । जल थल मैंही रमि रहौ, मोर निरंजन नांग ॥ २१॥ रमैनी ॥ २२॥ अलख निरंजन लखे न कोई । जेहि बंधे बंधा सब लोई ॥ जेहि झूठे सब बांधु अयाना । झूठा बचन सांच कै माना ॥ धंधा बंधा कीन्ह व्यवहारा।। कर्म विवर्जित बसै निन्यारा ।। षट् आश्रम पद । दर्शन कीन्हा । पटरस बास पटै वस्तु चीन्हा । चारि वृक्ष छौ शाख बखानी । विद्या अगणित गनै न जानी ।। औरो भागम करे विचारा । ते नहिं सूझे वार न पारा । जप तीरथ व्रत कीजै । | पूजा । दान पुण्य कीजै बहु दूजा ॥ Hari RIMIRE