पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/२६

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२५ वीजक मूल * रूप करे इंकारा ॥ पढे वेद औ करे बड़ाई । संशय, गाँठि अजहँ नहिं जाई । पदिक शास्त्र जीव वध , करई । मंडि काटि अगमन के धरई ॥ सासी-कहहि कवीर ई पाग्वंड, बहुता जीव सताव । अनुभव भाव न दरसै, जियत न पापु रखाच ॥ ३१ ॥ रमैनी ॥ ३२॥ अंधसो दर्पण वेद पुराना। दवा कहा महारस जाना ॥ जस खर चंदन लादेउ भारा । परिमल वास न जानु गँवारा ॥ कहहिं कबीर खोजे अस- माना । सो न मिला जो जाय अभिमाना ॥३२॥ रमैनी ॥३३॥ वदकी पुत्री सुमृति भाई । सो जेवरि कर लताहि आई ॥ आपुहि बरी अापन गर बंधा । झूठा मोह । कालको फंदा ॥ धवत बँधा छोरियो न जाई । " विपय स्वरूप भूलि दुनियाई ॥ हमरे देखत सकल - जग लूटा । दास कबीर राम कहि छूटा ॥ सारखी-रामहि राप पुकारते । जिभ्या परिगौ रौस। . . सूधा जत पीवें नहीं । खोदि पिचनको हौस ॥ ३३ ॥

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