पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[४] भाईकार का पर्दा सयको उससे अलग कर दिया है जैसे-"यादी गर्य। गुमान ते. तात परि गइ दूरण सम्पूर्ण माशामों को त्याग फर निज स्वरूप में स्थिर हो जामो-"यदि किन रहार मेटि सय माशागीर। "जो तू चाहे मुझको, छाँह सफल की मास, मुमही ऐसा होरदो। सय सुख तेरे पाम सप माशा बासा के त्याग से गुरु पद फी। प्राप्ति होती है। सदगुरु फवीर साहिय के प्रादुर्भाव होने के स्थान लहतारा "श्री योजक विद्यालय" का मायापक महाराज राघवदासजी द्वाग भक्षर वाश्यादि गत पूटियों को शुद्ध कराके यह पन्य (योजकमल) को मैने छापा है। यह सौमाग्य प्राप्त होना और निर्विघ्न कार्य सफर समाप्त हो जाना इत्यादि सय सद्गुर फार ही की परम कृपा का फिल है। प्रतएव यह अन्य रूप मेंट उनही करण निधि सद्गुरु कधीर साहिब के चरण कमलों में सादर समर्पण करता है। इति शम् ॥ शुदतिथि- सरु पीर जयन्युत्सव, ज्येष्ठ पूर्णिमा सम्बत् १६४२ वि०) विनम्न विक:- बैजनाथ प्रसाद गुफ्सेलर, काशी।