पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/४४

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  • बीजक मूल

रमैनो ॥ ६७॥ देह हलाय भक्ति नहिं होई ।. स्वांग धरे नर बहु | विधि जोई ॥ धींगी धींगा भलो न माना ।जोकाहू मोहि हृदया जाना ॥ मुख कछु और हृदय कछु । श्राना । सपनेहु काहु मोहि नहि जाना ।। ते दुःख पैहौँ ई संसारा । जो चेतह तो होय उबारा । जो गुरु किंचित निंदा करई । सूकर श्वान जन्म

  • सो धरई ॥

साखी-लखचौरासी जीव जतुमें, भटकि २ दुखपाव । कहै कबीर जो रामहिं जाने,मो मोहिनीके भार ॥६७] रमैनी ॥६८॥ तेहि वियोगते भयउ अनाथा । परेउ कुंजवन । पावे न पंथा । वेदो नकल कहे जो जाने । जो समझै सो भलो न माने ॥ नटवट विद्या खेल जो जाने । तेहि गुणको ठाकुर भलमाने ॥ उहै जो खेले सब घटमाहीं। दूसर के कछु लेखा नाहीं ॥ 1 भलो पोच जो अवसर प्रावे । कैसहु के जन है पूरा पावे ॥ THYT rjatantected