पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/४६

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  • वीजक मूल.

बोलिये जो पड़े विचारा । मिलहिं संत वचन दुइ कहिए । मिलहिं असंत मौन होय रहिए ॥ पंडित सो बोलिये हितकारी । मूरख सो रहिए झखमारी ॥ कहहिं कबीर अर्ध घट डोले । पूरा होय विचार 'ले बोले ॥ ७० ॥ रमनी॥ ७१ ॥ सोग वधावा (जिन्ह ) संगकरि माना । ताकी वात इंद्रहु नहिं जाना ॥ जटा तोरि पहिरावे सेली।। योग मुक्तिकी गर्भ दुहेली ॥ श्रासन उड़ाय कौन ? बड़ाई । जैसे कौवा चील्ह मिडराई ॥ जैसी भीतई तैसी है नारी । राज पाट सब गने उजारी ॥ जस नरक तस चन्दन जाना । जस बाउर तस रहें । ३ सयाना ॥ लपसी लोग गने एकसारा । खांड छाडि मुख फाँके बारा॥ साखी-इहै विचार विचारते, गये युद्धि बल चेत ॥ ___ दुइमिति एकै होय रहा, (मैं) काहि लगाऊँ हेत।।७१।। . रमैनी ॥७२॥ नारी एक संसारहि आई । माय न वाके बापहि ।