पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/६७

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.६६ बीजक मूल विनु अक्षर सुधि होई ।। सुधि विनु सहज ज्ञान विनु ज्ञाता । कहहिं कबीर जन सोई ॥ १६ ॥ शब्द ॥ १७॥ । रामहिं गावे औरहि समुझावै । हरि जाने चिनु विकल फिरे । जेहि मुख वेद गायत्री उचरे । ताके वचन संसार तरे । जाके पाँव जगत उठि लागे । सो ब्राह्मण जीव वध करे ।। अपने ऊँच, नीच घर भोजन । घीन कर्म हठि बोद्र भरे॥ ग्रहन । अमावस ढुकि दुकि माँगे । कर दीपक लिये कूप परे ॥ एकादशी व्रत नहिं जाने । भूत प्रेत हठि। । हृदय घरे ॥ तजि कपूर गाँठि विप वाँधे । ज्ञान गँवाये मुग्ध फिरे । छीजे साहु चोर प्रतिपाले । संत । जना की कूटि करे ।। कहहिं कबीर जिभ्याके लपंट। यहि विधि प्राणी नर्क परे ॥ १७ ॥ शब्द ॥ १८॥ राम गुण न्यागे न्यागे न्यारो ॥ 1 अबुझा लोग कहाँलो चूमे । वूमनहार वि. THAN