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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/६८

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MARAKHARKARI ___RAKHARKHARKHAPATRIKA

  • वीजक मूल

६७६

  • चारो ॥ के तेहि रामचन्द्र तपसी से । जिन्ह यह

में जग विटमाया ॥ के तेहि कान्ह भये मुरलीधर । तिन्ह भी अंत न पाया ॥ मच्छ कच्छ वाराह स्व- रूपी । वामन नाम धराया।केहि बौद्ध निकलंकी कहिये । तिन्ह भी अंत न पाया । केहि सिद्ध । साधक सन्यासी । जिन्ह वनवास बसाया । केहि मुनिजन गोरख कहिये । तिन्हभी अंत न पाया ॥ जाकी गति ब्रह्मे नहिं जानी । शिव सनकादिक हारे । ताके गुण नर कैसे के पैहो । कहहिं कबीर पुकारे ।। १८ ॥ शब्द ॥ १६ ॥ ये तत्तु राम जपो हो प्रानी । तुम बूझहु । । अकथ कहानी ॥ जाके भाव होत हरि ऊपर ।। जागत रैनि विहानी ॥ डाइनि डारे स्वनहा डोरे ।। सिंह रहै वन घेरे॥पांच कुटुम मिलि जूझन लागे । वाजन बाजु घनेरे ॥ रेहु मृगा संशय वन हाँके । । पारथ वाणा मेलै । सायर जरे सकल वन डाहे।

g anthaney ।