पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/७८

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PRAKERAYARIKAARAKekraKARAN वीजक मूल समाने । छूटि गये सब तवहीं । वायें दहिने तजो विकारा । निजुकै हरिपद गहियों ॥ कहहिं कवीर। गूंगे गुर खाया । पूछे सो क्या कहिया ॥ ३८॥ शब्द ॥ ३६॥ ऐसो हरिसो जगत लस्तु है । पांडुर कतहूँ । गरुड़ धरतु है ॥ मृस विलाइ। कैसन हेत् । जंबुक करै केहरि सो खेतू । अचरज एक देखो संसारा । स्वनहा खेदै कुंजर असवारा ॥ कहहिं कवीर सुनो संतो भाई । इहै संधि काहु विरले पाई ॥ ३६॥ शब्द ॥ ४०॥ पंडित वाद पदे सो झूटा ॥ टेक ॥ रामके कहे जगत गति पावे । खाँडकहे मुख मीग ॥ पावक कहे पॉव जो डाहै । जल कहे तृपा! ई वुझाई ॥ भोजन कहे भूख जो भाजै । तो दुनियां। तरिजाई ॥ नरके संग सुवा हरि बोलै । हरि परताप न जानै । जो कवही उडिजाय जंगल में | ना हरि सुरति न आने ॥ विनु देखे बिनु पर्स से