पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/८९

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,६० वीजक मूल हियेह की फूटी । पानी माहिं पपाण की रेखा। टोंकत उठे भभृका ॥ सहस घड़ा नित उठि जब ढारे।। फिर सूखे का सूखा ।। सेतहिं सेत सितंगभो । सैन । वाढ अधिकाई ।। जो सनिपात रोगियन मारे । सो साधुन सिद्धि पाई ।। अनहद कहत कहत जग विनशे । अनहद सृष्टि समानी । निकट पयाना यमपुर धावै ।। बोले एकै वानी ॥ सत्गुरु मिले। बहुत सुख लहिये । सतगुरु शब्द सुधारे ।। कहहिं । कवीर ते सदा सुखी हैं। जो यहि पदहिं विचारे।।५७॥ है शन्द ।। ५८॥ । नरहरि लागि दो विकार विन इंघन । मिले। न वुझावन हार ॥ में जानो तोही से व्यापे । जरत । सकल संसार । पानी माहि अग्नि को अंकुर जरत वुझावे पानी ॥ एक न जेरे जैरे नी नारी ।। युक्ति न काहू जानी ॥ शहर जरे पहरू सुख सावें। । कहें कुशल घर मेरा ॥ पुरिया जरेवस्तु निजउमेरे। विकल राम रंगतेरा ॥कुवजापुरुप गले एक लागा। 474