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पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/१०१

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(११) अभिसंवोधन मारं विजित्य सवलं स हि पुरुपसिंहो ध्यानसुखमभिमुखमभितोऽपि शास्ता । विद्यता दशवलेन यदा हि प्राप्ता संकम्पिता दशदिशा बहुक्षेत्रकोट्यः ॥ धीर गौतम अनेक प्रकार के उत्तेजन मिलने पर भी काम के वश में न आए और उन्होंने उसके जड़-मूल को नाश कर दिया । काम के नष्ट होने से उनका मन एकाग्र हो गया। सव चंचलता जाती रही । उन्होंने प्रवल दुर्दम मन को अपने दीर्घ-कालिक निरंतर अभ्यास से दमन कर काम के नाश से उत्पन्न अचल और ध्रुव वैराग्य से चित्त की वृत्तियों का निरोध किया। चित्त के एकाग्र होने पर उनमें एक अलौकिक आनंद का संचार हो गया और उनके लिये समाधि का मार्ग साफ हो गया। उनके राग द्वप आदि नष्ट हो गए, उनका चित्त शुद्ध, विमल, चंचलतारहित और शांत हो गया। ___ चित्त की वृत्ति को एकाग्र कर उन्होंने समाधि लगाई और वे सुगमता से संप्रज्ञात समाधि (सवितर्क ध्यान) में मग्न हुए।

  • चौड़ी के हीनयान के ग्रन्यों में समाधि यो ध्यान कहा है और सपितर्क,

अवितर्क, निष्प्रिीतिक और धनुःखागुखध्यान उसके भेद माने गए हैं, जिन्हें पतंगलि ने योग शास्त्र ने संप्रज्ञात, असंप्रज्ञन्त, सवीज और मिर्षीज समाधि कहा है। महायान के ग्रन्थों में समाधि की अनेक भूनियां मानी गई है।