( १३३ ) उन्हें बुलाने के लिये भेजा । पर उसकी भी वही दशा हुई जो पहले की हुई थी और वह भी अपने साथियों समेत पात्र चीवर ग्रहण कर भिक्षु हो गया। इस प्रकार महाराज शुद्धोदन ने लगातार कई राजपुरुषों को यथाक्रम कई वार समय समय पर महात्मा बुद्धदेव को बुलाने के लिये भेजा। पर जव राजगृह से उनमें से एक पुरुष भी वापस न आया, तव महारांजं शुद्धोदन को बड़ी चिंता हुई और वे पुत्र-वियोग और प्रम से अत्यंत विह्वल होगए। वे अत्यंत घबरा गए और विवंश होकर उन्होंने कालउदायिन् नामक अपने मंत्रिपुत्र को जो भगवान बुद्धदेव के साथ खेलनेवाला और अत्यंत प्रबंधकुशल था, बुलाया और उसे आग्रहपूर्वक राजगृह जाकर गौतम बुद्धदेव को कंपिलवस्तु ले आने के लिये आज्ञा दी । काल- खदायी महाराज की आज्ञा पाकर राजगृह चलने के लिये प्रस्तुत हुश्रा। महाराज शुद्धोदन ने कालउदायो को विदा करते समय अपनी आँखों में आँसू भरकर कहा-" बेटा कालउदायी ! मुझे स्मरण रखना और दूसरों की भाँति तुम भी राजगृह पहुंचकर 'इस दुखी बुड्डू को न भूल जाना। कुमार से मेरा संदेसा कहना और एक बार उन्हें कपिलवस्तु में अवश्य ले आना। कहना कि । तुम्हारा बुढा वाप तुम्हारे वियाग में रो रोकर अंधा हो रहा है। एक बार तो वह मुझे अपने दर्शन दे जाय । इस क्षणभंगुर जीवन का ठिकाना ही क्या है ! आज मरूँ वा कलं । ऐसा न हो कि कुमार के देखने की लालसा मेरे मन ही में रह जाय और प्राण निकल जायें।" . . . . . .
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