यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( २२७ ) अस्थियों का भाग हो चुका था। निदान द्रोण ने उन्हें भगवान की चिता का अंगारा दें कर विदा किया। अंत को द्रोण ने वह कुंभ जिसमें भगवान बुद्धदेव की अस्थि विभाग के पूर्व रखी थी, सब लोगों से मांग लिया और उस पर स्वयं स्तूपं वनवाया। द्रोण के इस प्रकार सव को शांत कर देने पर सर्व भिक्षुओं ने एक स्वर से इस गाथा का गान किया- देविन्द नागिन्द नरिन्द पूजितो मनुस्सिन्द सेट्टहि तथैव पूजितो। तं वन्दय पजालिका भवित्वा, बुद्धो ह वे कप्पसतेहि दुब्लभो।