पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/६६

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'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् . . . - ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणा। । : • ऋपिऋण, देवऋण और पितृऋण चुकाकर मनुष्य को अपना मन मोक्ष में लगाना चाहिए। पापों के क्षय हो जाने से पुरुषों में ज्ञान का उदय होता है। . . यह सोच कुमार का मुख मोक्ष के आनंद से दैदीप्यमान हो गया । पर थोड़ी देर के बाद जब उन्होंने पुत्र की उत्पत्ति से उत्पन्न राग के बंधनों पर ध्यान दिया तो उनके आनंद के चंद्रमा पर मानों राहु ने आक्रमण किया। उनका सारा मानसिक आनंद तिरोभूत हो गया। उन्होंने अपने को प्रेम-बंधन में जकड़ा हुआ पाया और कहा कि यह राहु है । इसी लिये कुमार का नाम राहुल रक्खा गया। " बहुत काल तक नाना प्रकार के संकल्प विकल्प करके सिद्धार्थ कुमार अपने प्रासाद से निकले और महाराज़ शुद्धोदन के पास गए। अपने पिता को नमस्कार कर उनके सामने हाथ जोड़कर उन्होंने नन भाव से कहा-"महाराज ! आप खेद न करें और मुझे क्षमा करें। आपको इससे कोई विन्न नहीं होगा। दैवयोग से अब मेरी प्रनया का समय आ गया। आप और आपके खजन तथा राष्ट्र के लोग मुझे सहर्प गृहाश्रम त्यागने की आज्ञा दें।" पुत्र का यह वचन सुन शुद्धोदन ने कहा-“हे पुत्र ! तुम गृहाश्रम क्यों छोड़ते हो ? तुम्हारा क्या प्रयोजन है जो तुम मेरी आज्ञा माँगते हो ? लो मैं तुम्हें अपना सारा राज्य, राजकुल, सब धन-संपत्ति प्रदान करता हूँ, पर तुम गृह-त्याग न करो।" पिता को यह बात