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बन्यो बणिक कुमार, छंदक बन्यो तासु मुनीम।
पाँव प्यादे चले दोऊ लखत भीर असीम।
जात पुरजन में मिले नहिं तिन्हैं चीन्हत कोउ।
बात सुख औ दुःख की वे जात देखत दोउ।
गली चित्रित लखि परें औ उठत कलरव घोर।
बणिक बैठे धरि मसाले अन्न चारों ओर।
हाथ में लै वस्तु गाहक मोल करत लखात-
"दाम एतो नाहिं एतो लेहु, मानौ बात।"
'हटौ छाँडो राह' ऐसी टेर कतहुँ सुनाति;
मरमराती बोझसों है बैलगाड़ी जाति।
कूप सोँ भरि कलश जातीं गृहबधू सिर धारि,
एक कर सोँ गोद में निज चपल शिशुहिं सँभारि।
है मिठाई की दुकानन पै भँवर की भीर।
तंतुवाय पसारि तानो विनत हैं कहुँ चीर।
कतहुँ धुनिया धुनत रूई ताँत को झननाय।
चलति चक्की कतहुँ, कूकर खड़े पूँछ हिलाय।
कतहुँ शिल्पी हैं बनावत कवच औ करवाल।
बैठि कतहुँ लुहार पीटत फावड़ो करि लाल।
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