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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३१

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बैठि गुरु के सामने कहुँ अर्द्धचंद्राकार
शिष्य सीखत वेद हैं करि मंत्र को उच्चार।
कुसुम, पाल, मजीठ मों रॅगि, दोउ कर सों गारि
धूप में रँगहार गीले वसन रहे पसारि।

जात सैनिक ढाल बोधे, खड्ग को खड़काय।
ऊँटहारो ऊँट पै कहुँ बैठि झूमत जाय।
विप्र तेजस्वी मिलें औ धीर क्षत्रिय वीर;
कठिन श्रम में हैं लगे कहुँ शूद्र श्यामशरीर।

कहुँ सँपेरो बैठि पथ के तीर करत पुकार,
भाँति भाँति भुजंग के धरि अंग जंगम हार।
श्वेत कौड़िन सों टॅको महुवर बजाय बजाय
रह्यो कारे काल को फुफकार सहित नचाय।

पालकी लै बधू लावन भीर सजि कै जाति;
संग सिंघे औ नगारे, चपल कोतल पाँति।
कहूँ देवल पै बधू कोउ फूल माल चढ़ाय
फिरैँ पिय परदेस सों यह रही जाय मनाय।

पीटि पीतर कहुँ ठठेरे रहे 'ठन ठन' ठानि
ढारि लोटे औ कटोरे, धरत दीवट आनि।
बढ़े आगे जात दोऊ फाटकन के पार
धरि तरंगिनि-तीर-पथ जहँ नगर को प्राकार।