मारग के इक ओर पर्यो सुनि यह आरत स्वर
"हाय! उठाओ, मर्यों पहुँचिहौं मैं कैसे घर?"
एक अभागो जीव कुँवर को परसो लखाई,
पर्यो धूरि में घोर व्याधि सों अति दुख पाई।
सारो तन छत विछत, स्वेद छायो ललाट पर;
रह्यो ओंठ चढ़ि दुसह व्यथा सों, मीजत है कर
कढ़ी परति हैँ आँखि, वेदना कठिन सहत है;
हाँफि हाँफि कर टेकि भूमि पै उठन चहत है।
आधो उठि इक बार परसो गिरि काँपत थर थर;
बेबस उठ्यो पुकारि "धरौ कोऊ मेरो कर।"
दौरि परसो सिद्धार्थ, बाहँ गहि दियो सहारो;
निरखि नेह सों तासु सीस निज उरु पै धारो।
पूछन लाग्यो "बंधु! दशा है कहा तिहारी?
सकत न क्योँ उठि? कहौ, कौन सो दुख है भारी।
छंदक! क्यों यह परो कराहत बिलबिलात है?
हाँफि हाँफि कछु कहि उसास क्यों लेत जात है?"
कह्यो सारथी "सुनौ, कुँवर! यह व्याधिग्रस्त नर;
या के तन के तत्व बिलग कै रहे परस्पर।
सोइ रक्त जो रह्यो अंग में बल बगरावत
भीतर भीतर मथत सोइ अब तनहिं तपावत।
भरि उछाह सों कबहुँ हृदय जो उमगत रहि रहि
धरकत फूटी ढोल सरिस सोई अब दुख सहि।
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