पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४१

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छिटकी विमल विश्रामवन पै यामिनी मृदुताभरी
वासित सुगंध प्रसूनपरिमल सोँ, नछत्रन सोँ जरी।
ऊँचे उठे हिमवान की हिमराशि सोँ मनभावनी
संचरति शैलसुवायु शीतल मंद मंद सुहावनी।

चमकाय शृंगन चंद्र चढ़ि अब अमल अंबरपथ गह्यो;
झलकाय निद्रित भूमि, रोहिनि के हिलोरन को रह्यो।
रसधाम के बाँके मुँड़ेरन पै रही द्युति छाय है
जहँ हिलत डोलत नाहिँ कोऊ कतहुँ परत लखाय है।
बस हाँक केवल फाटकन पै पाहरुन की सुनि परै,
जहँ एक 'मुद्रा' कहि पुकारत एक 'अंगन' धुनि करै।
बजि उठत तोरणवाद्य हैँ, पुनि भूमि नीरवता लहै।
है कबहुँ बोलत फेरु, पुनि झनकार झीँगर की रहै।

भवन भीतर जाति जालिन बीच सोँ छनि चाँदनी
भीति पै औ भूमि पै जो सीप मर्मर की बनी।
किरनमाल मयंक की तरुनीन पै है परि रही।
स्वर्ग बिच विश्रामथल अमरीन को मानो यही।

कुमार के रंगनिवास की हैँ अलबेली नवेली तहाँ रमनी।
लसै छवि सोवत मेँ मुख की प्रति एक की ऐसी लुनाई सनी,
परै कहुँ जाहि पै दीठि जहाँ सोइ लागति सुंदरि ऐसी घनी
यहै कहि आवत है मन में 'सब में यह रत्न अमोल धनी।'