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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५५

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अवसि खुलिहै मार्ग कहुँ, जहँ थके पाँव पधारि
पायहै निस्तार को सो कोउ द्वार निहारि।
जासु हित सब त्यागिहै सो अवसि मिलिहै ताहि
और मृत्युंजय कदाचित् होयहै सो चाहि।

करौं मैं यह, त्यागिबे हित जाहि एतो राज।
हिये कसकति पीर सो जो सहत मनुजसमाज।
हैं जहाँ जो कछु हमारो-कोटिगुन हू और-
करत हौसला उत्सर्ग जासों होय सुख सब ठौर।

होहु साक्षी आज गगन के सारे तारे!
और भूमि जो दबी भार साँ आज पुकारे!
त्यागत हौँ मैं आज आपनो यह यौवन, धन,
राजपाट, सुख भोग, बंधु, बांधव औ परिजन,
सबसोँ बढ़ि भुजपाश, प्रिये! तव तजत मनोहर,
तजिबो जाको या जग में है सब सोँ दुष्कर।
पै तेरो निस्तार जगत् के सँग बनि ऐहै,
वाहू को जो गर्भ बीच तव कछु दिन रैहै-
है जो फल लहलहे प्रेम को प्रथम हमारे-
पै देखन हित ताहि रहौं तो धैर्य्य सिधारे।
हे पत्नी, शिशु, पिता और मेरे प्रिय पुरजन!
कछुक दिवस सहि लेहु दुःख जो परिहै या छन,