पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६२

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सौ मनुष्य जब लगैं खुलैं जो तब कहुँ जाई
खुले आप तें आप सरकि, नहि परे सुनाई।
याही विधि खुलि परे बाहरी फाटक सारे
ज्यों ही राजकुमार पावँ तिनके ढिग धारे।
रक्षकगण जनु मरे परे ऐसे सब सोए,
डारि ढाल तरवार दूर, तन की सुध खोए।
ऐसी बही बयार कुँवर के आगे ता छिन
परे मोहनिद्रा में लीने श्वास जहाँ जिन।


गयो गगनतट शुक्र, बह्यो जब प्रात-समीरन,
लहरन लागी कछुक अनामा पाय झकोरन,
खीचि बाग चट कुँवर कूदि महि पै पग धारे,
कंथक को चुमकारि, ठोंकि मृदु बचन उचारे।
छंदक सोँ पुनि प्रेम सहित बोल्यो कुमारवर
"जो कछु तुमने कियो आज वाको फल सुंदर
पैहौ तुम औ पैहैं जग के सब नारी नर।
धन्य भये तुम आज जगत में, हे सारथिवर!
देखि तिहारो प्रेम प्रेम मेरो अति तुम पर,
अब मेरे या प्यारे अश्वहिं लै पलटौ घर।
लेहु सीस को मुकुट, राजपरिधान हमारे
जिन्हेँ न कोउ अब मोहिँ देखिहै तन पै धारे।