पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६३

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रत्नजटित कटिबंध सहित यह खड्ग लेहु मम
औ ये लाँबी लटैं काटि फेंकत जिनको हम।
दैं यह सब तुम महाराज सोँ कहियो जाई
"मेरी सुधि अब राखें तौलौँ सकल भुलाई
जौ लौँ आऊँ नाहिँ राज सोँ बढ़ि लहि संपति,
यत्न योग बल, विजय पाय, लहि बोध विमल अति।
यदि पाऊँ यह विजय होय बसुधा मेरी सब
हित नाते, उपकार निहोरे; यहै चहत अब।
गति मनुष्य की होनी है मनुष्य के हाथन।
पच्यो न जैसो कोउ होय पचिहौँ दै तन मन।
जग के मंगल हेतु होत हौँ जग तेँ न्यारे,
पैहौँ कोऊ युक्ति मुक्ति की यह चित धारे।"