पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६९

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क्लेश की सब वेदना मरि जाय आपहि आपही,
ताप सोँ तन नहिं तचै औ शीत सोँ काँपै नहीं।
करत नाना साधना योगी यती मन लाय के,
त्यागि जनपदवास निर्जन बीच धाम बनाय कै।

कतहुँ कोऊ ऊर्ध्वबाहु दिनांत लौँ ठाढ़े रहैं;
जोड़ तें भुजदंड दोऊ मोड़ ना कबहूँ लहैँ,
सूखि कै अति छीन औ गतिहीन है तन में नढ़े
उकठि मानो रूख तें द्वै खूथ ऊपर को कढ़े।

कीलि राखे करन को कोउ काठ मारि कठोर हैं;
भालु के से बढ़ि रहे नख आँगुरिन के छोर हैं।
लोह-कील बिछाय कोऊ बसत आसन मारि कै।
कोउ ऐंठत अंग, कोउ पंचाग्नि तापत बारि कै।
 
पाथरन सोँ मारि कोऊ जारि तन जर्जर करे,
राख माटी पोति तन पै चीथरे चीकट धरे।
जपत कोउ शिवनाम बैठि मसान पै दिनरात हैं,
स्यार जहँ शव नोचि भागत, गीध बहु मँड़रात हैं।

कोउ करि मुख भानु दिशि पग एक पै ठाढ़ो रहै,
नाहिँ अथवत देव जौ लौँ अन्नजल नहिँ कछु लहै।
सहत साँसति सतत योँ, सब मांस गलि तन की गई,
हाड़ सोँ सटि चाम सूखो, ताँत सी नस नस भई।