पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१७१

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जो कोउ तनहिं तपाय क्लेश ही जानिहै
और मरण विश्रामरूप करि मानिहै
क्लेशभोग सोँ पापलेश नसि जायहै,
निखरि जीव है शुद्ध, लोक शुभ पायहै,

निकसि घोर या तापपूर्ण भवकूप तें
लोकन बीच बिचरिहै दिव्य स्वरूप तें,
भाँति भाँति सुख भोग भोगिहै बसि तहाँ
जिनको ह्याँ अनुमान सकत कोउ करि कहाँ?

कह्यो श्रीसिद्धार्थ "वह जो शुभ्र मेघ दिखात
इंद्र-आसन को मनो पट स्वर्णमय दरसात,
बातक्षुब्ध पयोधि साँ सो उठो नभ में जाय,
अश्रुबिंदु समान खसि खसि अवसि गिरिहै आय;

कीच सोँ सनि, धुनत सिर, बहि नदी नारन माहिँ
जाय परिहै जलधि में पुनि अवसि संशय नाहिँ।
कहा याही रूप को नहिं स्वर्ग को सब भोग,
जाहि अर्जन करत मुनिजन साधि तप औ योग?

चढ़त जो सो गिरत, छीजत लेत जाहि बिसाहि,
यह अटल व्यवहार जग में विदित है नहिं काहि?
रक्त तन को गारि योँ क्रय करत हौ सुरधाम,
पूजिहै जब भोग सोइ भवचक्र पुनि अविराम।"