"कौन जानै होय ऐसो, सकत कहि किहि भाँति?
निशा पै पुनि दिवस प्रावत, श्रम अनंतर शांति।
रक्त पल की देह पै या हमैं ममता नाहिं
रहति बाँधे जीव को जो विषयबंधन माहिं।
जीव के हित दाँव पै हम धरत देवन पास
क्षणिक जीवनक्लेश यह चिरकाल सुख की आस।"
कुँवर बोले "सोउ सुख की अवधि है पै, भ्रात!
बर्ष कोटिन लौँ रहै, पै अंत है ही जात।
अंत जो नहिँ तो कहा हम लय ऐसो मानि
है कहूँ या रूप जीवन जासु होति न ग्लानि,
भिन्न जो सब भाँति जाको होत नहिं परिणाम?
हैँ कहा, ये देव सारे नित्य निज निज धाम?"
कह्यो योगिन "देव हू नहिँ नित्य या जग माहिँ
नित्य केवल ब्रह्म है, हम और जानत नाहिँ।"
कह्यो बुद्ध भगवान् "सुनो, हे मेरे भाई!
ज्ञानवान्, दृढ़चित्त परत हौ हमैँ लखाई।
क्योँ तुम अपनी हाय दाँव पै देत लगाई
ऐसे सुख के हेतु स्वप्न सम जो नसि जाई?
आत्मा को प्रिय मानि देह याँ अप्रिय कीनी,
ताड़न करि बहु ताकी तुम यह गति करि दीनी
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