पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८२

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"भटकैं नर भेड़ सामान, अहो! इनको नहिं कोउ चरावनहार;
सब जात चले उत ध भए बलि हेतु खिंची जित है जमधार।

आय नृपति सोँ कही एक प्रभु को आवत सुनि
"आवत हैं तव यज्ञ माहि, प्रभु! एक महा मुनि।"

यज्ञशाला मेँ बसत नृप; बँधे बंदनवार;
शुभ्र पट धरि करत ब्राह्मण मंत्र को उच्चार।
देत आहुति जात हैं मिलि सकल बारंबार।
मध्यवेदी बीच धधकति अग्नि धूआँधार।

गंधकाठन सोँ उठति लौ जासु जीभ लफाय;
खाति बल, धुधुआति रहि रहि धार घृत की पाय;
भखति बलि सह सोमरस जो पाय इंद्र अघात;
अंश देवन को सकल तिन पास पहुँचत जात।

बधे बलिपशु के रुधिर की लाल गाढ़ी धार
बिछी बालू बीच थमि थमि बहति वेदी पार।
लखौ अज इक बड़े सीँगन को खड़ो मिमियात,
मूँज सेँ गर कसो जाको यूप में दरसात।

तानि ताके कंठ पै करवाल अति खरधार
एक ऋत्विज´ लग्यो बोलन मंत्र विधि अनुसार-