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"ग्रहण याको करौ तुम, हे देवगण, सब आय
यज्ञबलि शुभ बिंबसार नरेश को हरषाय।
होहु आज प्रसन्न लखि जो रक्त रहे बहाय।
जरत पल तें वपा की यह गंध लेहु अघाय।
भूप को मम अशुभ याके सीस पै सब जाय।
हनत हौं अब याहि, लेवैं भाग सुरगण आय।"
आय ठाढ़े भए नृप ढिग बुद्ध प्रभु तत्काल
बरजि बोले "याहि मारन देहु ना, नरपाल!"
जाय बलिपशु पास बंधन तुरत दीनो खोलि;
तेज सोँ दबि रहे सब, नहिं सक्यो कोऊ बोलि।
कहन पुनि भगवान लागे "गुनौ, नृप! मन माहिं,
लै सकत हैं प्राण सब, पै दै सकत कोउ नाहिं।
क्षुद्र कैसउ होय प्यारो होत सबको प्रान।
नाहिँ ताको तजन चाहत कोउ अपनी जान।
है अमूल्य प्रसाद जीवन, यदि दया को भाव,
सबल निर्बल दोउ पै है विदित जासु प्रभाव।
अबल हित करि देति कोमल जगत की गति घोर;
सबल को लै जाति है सो श्रेष्ठ पथ की ओर।