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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८४

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होत जीवन माहिँ जैसे कर्म, वचन, विचार
गति भली वा बुरी पावत ताहि के अनुसार।
नित्य है यह नियम अंतररहित औ अविराम।
कहत भावी जाहि सो है कर्म को परिणाम।

सुनत दया सोँ भरी खरी बानी प्रभु केरी
रक्तरँगे कर ढाँपि रहे द्विज इकटक हेरी।
सादर सहमि नृपाल खड़े कर जोरि अगारी।
लगे कहन प्रभु फेरि सबन की ओर निहारी-
"धराधाम यह कैसो सुंदर होतो, भाई!
जो रहते सब जीव प्रेम में बँधि गर लाई;
एक एक धरि खात न जो करि जतन घनेरो;
होत निरामिख रक्तहीन भोजन सब केरो।
अमृतोपम फल, कनक सरिस कन, साग सलोने
सब हित उपजत जो, देखौ, सब थल, सब कोने।"
सुनि यह सारी बात सहमि सबही सिर नायो,
दया धर्म को भाव सबन पै ऐसो छायो
ऋत्विज् हू सब दई अग्नि इत उत बगराई,
बलि को खाँड़ो दियो हाथ साँ दूर बहाई।
दूजे दिन नृप देश माहिँ डौंड़ी फिरवाई,
शिला पटल औ खंभन पै यह दियो खुदाई-