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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८६

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ताल तलैयन को सारो जल गयो सुखाई।
पशु पंछी जो बचे विकल लै गए पराई।
सूखे नारे के तट पै प्रभु जाय एक दिन
परी काँकरिन पै देखी इक भूखी बाघिन।
धँसे नयन ह्वै ज्योतिहीन, हाँफति मुँह बाई;
दाढ़न सोँ बढ़ि जीभ दूर कढ़ि बाहर आई।
पसुरिन सोँ सटि रह्यो चर्म चित्रित, ज्यों छप्पर
बाँसन बिच धंसि रहत होय वर्षा सोँ जर्जर।
विकल क्षुधा साँ शावक द्वै थन पै मुँह लाई
खैंचि खैंचि रहे हारि, बूँद नहिं मुख में जाई।
छटपटात निज शिशुन देखि जननी सिर नाई
सरकि और तिन ओर नेह साँ चाटति जाई।
रही भूलि निज भूख नेह के आगे सारी!
गर्जन नहिँ रहि गयो, बिलखि हुँकरत गर फारी।
देखि दशा यह तासु भूलि प्रभु अपनो तन मन
करुणा की निज सहज बानि-वश लागे सोचन
"कैसे बन की हत्यारिन की करौँ सहाई?
केवल एक उपाय परत है मोहि लखाई।
मांस बिना दिन डूबत ही ये तीनो मरिहैँ;
ऐसे मिलिहैं कौन दया जो इन पै करिहैं।
जिन्हैं रक्त की प्यास, मांस की भूख सतावति
तिनपै जग में दया नाहिं काहू को आवति।