तकि वा तरु का छाँह जात जहँ उनई डार विशाल।
मंडप सम सजि रह्यो चीकनो चमकत चल-दल-जाल।
प्रभु पयान सोँ पुलकित पूजन करति अवनि हरषाय
चरणन तर बहु लहलहात तृण, कोमल कुसुम बिछाय।
छाया करति डार मुकि बन की, मेघ गगन में छाय।
पठवत वरुण वायु कमलन को गंधभार लदवाय।
मृग, बराह औ बाघ आदि सब बनपशु बैर बिसारि
ठाढ़े जहँ तहँ चकित चाह भरि प्रभुमुख रहे निहारि।
फन उठाय नाचत उमंग भरि निकसि बिलन सोँ व्याल।
जात पंख फरकाय संग बहुरंग विहंग निहाल।
सावज डारि दियो निज मुख तें चील मारि किलकार।
प्रभु-दर्शन के हेतु गिलाई कूदति डारन डार।
देखि गगन घनघटा मुदित ज्याँ नाचत इत उत मोर।
कोकिल कूजत, फिरत परेवा प्रभु के चारो ओर।
कीट पतंगहु परत मुदित लखि; नभ थल एक समान
जिनके कान, सुनत ते सिगरे यह मृदु मंगलगान-
"हे भगवन्! तुम जग के साँचे मीत उबारनहारे।
काम, क्रोध, मद, संशय, भय, भ्रम सकल दमन करि डारे।
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