पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२०७

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विकल जीव कल्याण हेतु दै जीवन अपना सारो
जाव आज या बोधिद्रुम तर, प्रभु, हित होय हमारो।

धरती बार बार आसीसति दबी भार सोँ भारी।
तुम है। बुद्ध, हरौगे सब दुख, जय जगमंगलकारी!
जय जय जगदाराध्य! हमारी करौ सहाय, दुहाई!
जुग जुग जाको जोहत आवत सो जामिनि अब आई।"




मारविजय


बैठे प्रभु वा रैन ध्यान धरि जाय विटप तर।
किन्तु मुक्तिपथ-बाधक नर को मार भयंकर
शोधि घरी चट पहुँचि गयो तहँ विघ्न करन को,
जानि बुद्ध को करनहार निस्तार नरन को।
तृष्णा, रति औ अरति आदि को आज्ञा कीनी,
सेना अपनी छाँड़ि तामसी सारी दीनी।
भय, विचिकित्सा, लोभ, अहंता, मक्ष आदि अरि,
ईर्षा, इच्छा, काम, क्रोध सब संग दिये करि।
प्रबल शत्रु ये प्रभुहि डिगावन हित बहुतेरे
करत राति भर रहे बिन्न उत्पात घनेरे।
आँधी लै घनघोर घटा कारी घहराई
प्रबल तमीचर अनी घनी चारौ दिशि छाई।