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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२०८

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गर्जन तर्जन करति, मेदिनी कड़कि कँपावति,
तमकि करति चकचौँध चमाचम वज्र चलावति।
कबहुँ कामिनी परम मनोहर रूप सजाई,
चहति लुभावन मनभावन मृदु बैन सुनाई।
डोलत धीर समीर सरस दल परसि सुहावन;
लगत रसीले गीत कान में रस बरसावन।
कबहुँ राजसुख-विभव सामने ताके लावत।
संशय कबहूँ लाय 'सत्य' को हीन दिखावत।

दृश्य रूप में भई किधौँ ये बातें बाहर,
कैधौँ अनुभव कियो बुद्ध इनको अभ्यंतर,
आपहि लेहु बिचारि, सकत हम कहि कछु नाहीं।
लिखी बात हम, जैसी पाई पोथिन माहीं।

चले साथी मार के दस महापातक घोर।
प्रथम 'हम हम' करत पहुँच्यो 'आत्मवाद' कठोर,
विश्व भर में रूप अपनो परत जाहि लखाय।
चलै ताकी जो कहूँ यह सृष्टि ही नसि जाय।

आय बोल्यो "बुद्ध हौ यदि करो तुम आनंद,
जाय भटकन देहु औरन, फिरौ तुम स्वच्छंद।
गुनौ तुम है। तुमहि, उठि कै मिलौ देवन माहिं,
अमर हैं, निर्द्वद्व हैँ, जे करत चिन्ता नाहिँ।"

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