पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५६

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अष्टम सर्ग


उपदेश

वा रोहिणी के तीर खँड़हर आज लौँ फैलो परो
जहँ दूब सोँ छायो गयो बहु दूर लौँ पटपर हरो।
ईशान दिशि वाराणसी सोँ शकट चढ़ि जो जाइए
तो पाँच दिन को मार्ग चलि वा रम्य थल को पाइए,

लखि परत जहँ सोँ धवल हिमगिरिशृंग; जो फूलो फरो
है रहत बारह मास, सिंचित सरस बागन सोँ भरो;
जहँ लसत ढार सुढार, शीतल छाहँ मृदु सौरभ लिए।
है अजहुँ भाव पुनीत बरसत ठौर वा जो जाइए।

नित बहत सांध्य समीर ह्वै अति शांत झाड़न पै हरे
जहँ ढेर चित्रित पाथरन के ढूह ह्वै कारे परे,
अश्वत्थ जिनको भेदि फैले मूलजाल बिछाय कै,
जो लसत चारो ओर तृणदल-तरल-पट सोँ छाय कै।

कढ़ि कतहुँ कारुज काठ के बहु साज सोँ जो नसि धँसो
चुपचाप फेंटी मारि कारो नाग फलकन पै बसो।