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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६६

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है पठावति वृकजननि को सोइ शावक पास।
चहत जिन्हैं न कोउ तिनको करति सोइ सुपास।

नाहिँ कुंठित होति कैसहु करन में व्यवहार;
होत जो कछु जहाँ सो सब तासु रुचि अनुसार।
भरति जननिउरोज में जो मधुर छीर रसाल
धरति सोई व्यालदशनन बीच गरल कराल।

गगनमंडप बीच सोई ग्रह नछत्र सजाय
बाँधि गति, सुर ताल पै निज रही नाच नचाय।
सोइ गहरे खात में भूगर्भ भीतर जाय
स्वर्ण, मानिक, नीलमणि की राशि धरति छपाय।

हरित वन के बीच उरझी रहति सो दिन राति,
जतन करि करि रहति खोलति निहित नाना भाँति।
शालतरु तर पोसि बीजन और अंकुर फोरि
कांड, कोँपल, कुसुम विरचति जुगुति सोँ निज जोरि।

सोइ भच्छति, सोइ रच्छति, बधति, लेति बचाय।
फलविधानहिं छाँड़ि औ कछु करन सो नहिं जाय।
प्रेम जीवन सूत ताके जिन्हैं तानति आप;
तासु पाई और ढरकी हैं मरण औ ताप।