पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६७

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सो बनावति औ बिगारति सब सुधारति जाय।
रह्यो जो, तासोँ भलो है बन्यो जो अब आय।
चलत करतब भरो ताको हाथ योँ बहु काल
जाय कै तब कतहुँ उतरत कोउ चोखो माल।

कार्य्य हैं ये तासु गोचर होत जो जग माहिँ।
और केती हैं अगोचर वस्तु गिनती नाहिँ।
नरन के संकल्प, तिनके हृदय, बुद्धि, बिचार
धर्म के या नियम सोँ हैं बँधे पूर्ण प्रकार।

अलख करति सहाय, साँचो देति है करदान।
करति अश्रुत घोष घन की गरज सोँ बलवान।
मनुज ही की बाँट मे हैं दया प्रेम अनूप;
युगन की बहु रगर सहि जड़ ने लह्यो नररूप।

शक्ति की अवहेलना जो करै ताकी भूल।
विमुख खावत, लहत सो जो चलत हैं अनुकूल।
निहित पुण्यहि सोँ निकासति शांति, सुख, आनंद।
छपे पापहि सोँ प्रगट सो करति है दुखद्वंद।

आँखि ताकी रहति है नहिँ रहै चाहै और;
सदा देखति रहति जो कछु होत है जा ठौर।