पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २१४ )

व्याधि सोँ वा शोक सोँ जे विकल औ बिललात,
टेकि लाठी लुढ़त परिजनत्यक्त जे नतगात,
लगत जीवन तिन्हैं कैसो नेक पूछौ जाय ;
कहत ते "शिशु विज्ञ, रोवत जन्म जो यह पाय ।"

'दुःख समुदय' सत्य दूजो धारियो मन माहिं ।
कौन ऐसा क्लेश तृष्णा सोँ कढ़त जो नाहिँ ?
आयतन औ स्पर्श बहु विधि मिलत हैं जब जाय
कामतृष्णा आदि की तब ज्वाल देत जगाय ।

जगति तृष्णा काम की, भव विभव की या भाँति ।
स्वप्न में तुम रहत भूले, गहत छायापाँति ।
अहं को आरोप तिनके बीच करत भुलाय,
जगत् ठाढ़ो करत तासु प्रतीति योँ उपजाय ।

लखत तासोँ परे नहिँ औ सुनत नहिं तुम, भ्रात !
मधुर स्वर जो इन्द्रलोकहु सोँ परे लहरात ।
'असत् को तजि सत्य जीवन गहौ सहित विवेक'
धर्म की या हाँक पै तुम कान देत न नेक ।


*बौद्ध शास्त्रों में मन सहित पाँच इन्द्रियों के समूह को षडायतन और विषयों को स्पर्श कहते हैं ।